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खेजड़ी के वृक्ष पर लगने वाले रोग और उनके उपचार

थार शोभा खेजड़ी के रोग और उनके उपचार
खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरिया) के पेड़ रेगिस्तान की शुष्क जलवायु को झेलने में सक्षम हैं।

खेजड़ी रेगिस्तान के जन-जीवन की मुख्य धारा है। यह शुष्क मौसम के दौरान राजस्थान में कई लोगों के लिए आय का एक वैकल्पिक स्रोत है। पशुओं के लिए मुख्य भोजन होने के अलावा, खेजड़ी का उपयोग ईंधन की लकड़ी के रूप में भी किया जाता है। इसकी संख्या में कमी से शुष्क क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। खेजड़ी एक बहुउद्देशीय वृक्ष होने के कारण इसके कई फायदे हैं जिसके कारण इसे भारत के 10 राष्ट्रीय वृक्षों में से एक चुना गया है।

भारत में खेजड़ी के पेड़ (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) कीटाणु रोधी होते है। लेकिन प्रतिकूल मौसम होने के कारण खेजड़ी पर भी कीटाणुओं का हमला हो सकता है जिससे खेजड़ी रोगग्रस्त हो सकती है। एक तरह के मिट्टी से पैदा होने वाले कवक गैनोडर्मा ल्यूसिडम खेजड़ी के जड़ों से चिपक जाते है जिसके कारण खेजड़ी के पेड़ों की जड़ सड़ने लगती है। कवक गैनोडर्मा ल्यूसिडम के कारण बड़ी संख्या खेजड़ी के पेड़ मर रहे हैं। यह रोग अधिकतर रेतीली मिट्टी में हो सकता है, जहां गर्मियों में पेड़ों पर तापमान और नमी का अधिक दबाव होता है, जिससे वे कवक के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं और उनमें फंगल संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है। यह संक्रमण जड़ से जड़ के संपर्क से रोगग्रस्त खेजड़ी के पेड़ों से स्वस्थ पेड़ों में फैलता है। आधुनिक दौर में खेतों में यांत्रिक जुताई सामान्य तौर पर होती है। यांत्रिक जुताई के दौरान खेजड़ी की संक्रमित जड़ों से कीटाणुओं का स्वस्थ पेड़ों तक जाना संक्रमण फैलने का एक सामान्य तरीका है। जिससे यह संक्रमण धीरे-धीरे अनेक पेड़ों पर बढ़ता रहता है। इसके कारण पेड़ कमजोर होते रहते हैं और फिर अक्सर एक कीट, एकेंथोफोरस सेराटिकोर्निस द्वारा हमला किया जाता है, जो वृक्ष की जड़ में सड़न को बढ़ाता है और पेड़ तेजी से नष्ट होते रहते है।

खेजड़ी के रोगों की जानकारी

वनस्पतिशास्त्री के अनुसार खेजड़ी के रोग का उपचार किया जा सकता है। इसके समाधान के तौर पर वृक्ष के चारों ओर एक गहरी खाई खोदकर संक्रमित पेड़ों को स्वस्थ पेड़ों से अलग करने रखना चाहिए। लेकिन खेतों में बड़ी संख्या में पेड़ होते है इसलिए बड़े पैमाने पर यह तरीका अपनाना संभव प्रतीत नहीं होता है। इसलिए पेड़ों के विनाश को रोकने के लिए वैकल्पिक दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है। गैनोडर्मा रोग से पीड़ित पेड़ों के लक्षण, रोगज़नक़, मृत्यु के पूर्वगामी कारकों के बारे में जानकारी उपलब्ध है। खेजड़ी के पेड़ शुष्क और गर्म जलवायु में स्थित होने के कारण रोगाणु प्रतिरोधी होते हैं। लेकिन वे कीड़ों, भृंगों के आसान शिकार बन रहे हैं। शुष्क वन अनुसंधान संस्थान, जोधपुर के एक हालिया सर्वेक्षण से पता चलता है कि कीड़ों के हमलों ने खेजड़ी के पेड़ों को भारी नुकसान पहुंचाया है। इन कीड़ों की पहचान शूट बोरर (डेरोलस डिस्किकोलिस) के रूप में की गई है, जो लगभग चार सेंटीमीटर लंबा पीले भूरे रंग का कीट है। खेजड़ी रोगों की व्यापकता का अध्ययन किया गया लेकिन कीटाणुओं से वृक्ष की क्षति की सीमा का आकलन अभी तक नहीं किया जा सका है। हालाँकि, अध्ययनों से पता चलता है कि शाखाओं की अत्यधिक छंटाई, विशेष रूप से सूखे के दौरान, पेड़ को कीड़ों के प्रति संवेदनशील बना देती है। पेड़ का ठूंठ कीड़ों के अंडे देने के लिए एक आदर्श स्थान है। कीट के लार्वा पेड़ों के नयी कोमल शाखाएँ, पत्तियाँ और तने को खाकर उनके ऊतकों को नष्ट कर देते हैं। जिसके कारण हर साल नई पत्तियों की संख्या कम होती रहती है और अंततः पेड़ नष्ट हो जाता है। कीड़ा लगने के बाद एक पेड़ दो से तीन साल में पूरी तरह नष्ट हो सकता है। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि रेगिस्तानी क्षेत्र में लगातार पड़ रहे सूखे के कारण खेजड़ी की मृत्यु की समस्या अब और अधिक स्पष्ट हो गयी है।

खेजड़ी के पेड़

खेजड़ी का वृक्ष

खेजड़ी को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख कीट व बीमारियां

राजस्थान में कम वर्षा और लगातार भूजल स्तर में गिरावट के कारण खेजड़ी के पेड़ की जड़ों में पानी कम होता जा रहा है और पानी की कमी से जड़ क्षेत्र का तापमान बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में जड़ें कमजोर हो रही हैं और जिससे खेजड़ी की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम होती जा रही है, जिसके कारण कई प्रकार के कवक और कीट खेजड़ी की शाखाओँ, पत्तियों, फलों और जड़ों पर हमला कर देते हैं। कृषि क्षेत्र में बढ़ते मशीनीकरण के कारण खेजड़ी वृक्ष की जड़ों की प्राकृतिक प्रणाली को क्षति पहुँचती है, जिससे खेजड़ी के वृक्ष सूखने लगते हैं तथा बीमारियाँ फैलने लगती हैं। बड़े खेजड़ी वृक्षों के सूखने के जो मुख्य प्रत्यक्ष कारण सामने आए हैं, वे हैं - खेजड़ी जड़ छेदक कीट का संक्रमण, फफूंद संक्रमण, दीमक का आक्रमण, मशीनीकरण, और पानी की अत्यधिक कमी।

  1. जड़ छेदक कीट

    खेजड़ी को सर्वाधिक नुकसान जड़ छेदक कीट के कारण ही होता है। जिसका वैज्ञानिक नाम “सेलोस्टर्ना स्काब्रेटोर (कोलियोप्टेरा सिरेम्बाइसिडी)” है। खेजड़ी के पेड़ की कोमल जड़ों को खाते समय इस कीट की लटें आड़ी-तिरछी सुरंग बनाकर जड़ों के अंदर प्रवेश कर जाती हैं, जिससे जड़ें कमजोर हो जाती हैं। धीरे-धीरे ये लटें मुख्य जड़ों को खाने लगती हैं जिससे खेजड़ी वृक्ष का संवहन तंत्र् टूटने लगता है जिससे पौधो को पोषण मिलना बंद हो जाता है और पूरा वृक्ष सूखकर नष्ट हो जाता है। ये जड़ छेदक कीट मिट्टी और जड़ों में 3 से 15 मीटर की गहराई पर पाए जाते हैं। अक्सर ये कीट सुरंग बनाकर पेड़ के मुख्य तने में काफी ऊंचाई तक चले जाते हैं और जड़ों समेत पूरे पेड़ को खोखला कर देते हैं। ऐसे में पेड़ को बचाना मुश्किल हो जाता है।

  2. कवक या फफूंद संक्रमण

    खेजड़ी वृक्ष के सूखने का दूसरा मुख्य कारण कवक या फफूंदी है। खेजड़ी की जड़ों पर आक्रमण करने वाली कवकों की प्रमुख प्रजातियाँ गैनोडर्मा/गाईनोडर्मा, फ्यूजेरियम, रहीजक्टोनिया आदि हैं। फफूंदी के कारण खेजड़ी की जड़ों पर संक्रमण हो जाता है। गैनोडर्मा कवक को देशी भाषा में विषखोपरा या भंफोड़ा भी कहते हैं। खेजड़ी की जड़ों एवं तने के बीच में से छतरीनुमा आकार के भुफोड़ा या गाँठे बनती दिखाई देटी हैं जो गैनोडर्मा कवक के संक्रमण के कारण होते है। ये भंफोडे़/गाँठे शुरू में नरम होते हैं लेकिन बाद में कठोर और चॉकलेटी रंग के हो जाते हैं। इस फंगस के संक्रमण के कारण पौधे के संवहनी तंत्र के कार्य प्रभावित होने लगते हैं और पेड़ के पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं और बाद में धीरे-धीरे पूरा पेड़ सूख जाता है।

  3. दीमक का आक्रमण

    राजस्थान के रेगिस्तान में सूखा बहुत पड़ता है। नमी की कमी के कारण पेड़-पौधों के तनों में पानी की मात्रा कम रहती है। तने सूखे रहते हैं। बरसात के दिनों में नमी के कारण दीमक का खतरा बढ़ जाता है। वे सूखी जड़ों और तनों को अपना भोजन बनाते हैं। जिससे पेड़ सूखने लगते हैं। खेजड़ी के पौधों को सुखाने में दीमक का हमला भी अहम भूमिका निभाता है।

थार शोभा खेजड़ी में नुकसान

  • खेजड़ी पर गांठ (गरडू/गिरडू ) लगना :-खेजड़ी में एक रोग भी लगता है। जिसे स्थानीय भाषा में इसे गिल्डू/गरडू/गिरडू/गरेड़ो/फूरट गाल व गळगैवड़ा के नाम से जाना जाता है। खेजड़ी के पेड़ पर सांगरी की जगह गांठ (गरडू/गिरडू) लगती है यह एक प्रकार की गांठ ही है जो हर साल थोड़ी बहुत खेजड़ी के पेड़ पर सांगरी के साथ या पत्तो व शाखाओं पर लगती रहती है। खेजड़ी पर लगने वाले गिरडू / गांठों के कारण सांगरी उत्पादन में 90% तक की भरी कमी आती है और गांठें अधिक होने पर सांगरी लगती भी नहीं है। जिससे सांगरी के भावों में भरी बढ़ोत्तरी हो जाती है।

  • वनस्पतिशास्त्री के अनुसार खेजड़ी पर एरीओफिस वंश के कीट रहते हैं जिससे पौधा संक्रमित हो जाता है। जैसे-जैसे यह संक्रमण बढ़ता है, खेजड़ी पर गरडू/गांठें बन जाती हैं। जिसे वनस्पति शास्त्र में फू्रट गाल कहा जाता है। इन गांठों से जहां पेड़ से सांगरी का उत्पादन रुक जाता है। गिल्डू रोग के कारण खेजड़ी के पत्तों व शाखाओं पर अनेक गांठें उभर आती है। इससे बचने का उपाय यह है कि सांगरी लेने के बाद पेड़ की छंगाई की जाए। छंटाई से कीड़ों की संख्या काफी कम हो जाती है। जिससे खेजड़ी पर लगने वाली गिल्डू/गांठों से बचा जा सकता है। लेकिन छंटाई की अधिक लागत और लकड़ी के कम उपयोग के कारण खेजड़ी की नियमित छंटाई संभव नहीं है। इसलिए उचित देखभाल के अभाव में खेजड़ी पर गिरडू/गांठें बन जाती हैं।


    दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि खेजड़ी पर लगने वाला फल/सांगरी मौसम के अनुकूल होने पर ही लगता हो। अर्थात मार्च-अप्रैल में गर्मी के कारण सांगरी पनपती हैं। यदि मार्च-अप्रैल में तापमान में गिरावट हो जाये, वर्षा होती है या बिजली चमकती है जिससे खेजड़ी पर फल बनने के लिए मौसम अनुकूल नहीं होता है, जिसके कारण गिल्डू/गरडू/गरेड़ो/गांठे बन जाती हैं। खेजड़ी पर गरेड़ो/गांठे फल की जगह, पत्तो पर, शाखाओं पर बन जाती है। खेजड़ी की गिल्डू/गांठों के कारण सांगरी के उत्पादन में भारी कमी आ जाती है। जिससे किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।


    पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार खेजड़ी पर लगने वाली गांठे/गरडू आने वाले समय में खराब जमाने अर्थात अकाल का संकेत है। जब खेजड़ी पर मिमझर (पुष्पन) लगने के समय यदि बिजली कड़कती है या मेघ गर्जन होता है तो पुष्प सांगरी की बजाय इन गांठे/गरडू में परिवर्तित हो जाते है। ये खेजड़ी पर गरडू किसानों के लिए चिंता का विषय है जो शुभ संकेत नहीं है। खेजड़ी पर फूलों के साथ, सांगरी के साथ व पत्तों पर बनने वाली गांठे फूरट गाल कहलाती है।


    खेजड़ी पर गांठ/गरेड़ो रोग

    खेजड़ी पर गांठ

    खेजड़ी रोग गरडू/गिरडू

    खेजड़ी पर गरडू/गिरडू

    खेजड़ी पर गिल्डू/गळगैवड़ा

    खेजड़ी पर गिल्डू/गळगैवड़ा

    थार शोभा खेजड़ी में लगने वाले रोग और उपचार
  • खेजड़ी के जड़ में रोग :-केंद्रीय शुष्क बागवानी संस्थान (आईसीएआर), बीकानेर के एक शोध पत्र के अनुसार, खेजड़ी वृक्षों के सूखने का मुख्य कारण जड़ छेदक कीट का हमला और फंगल (कवक) संक्रमण है। सेलोस्टोर्ना स्कैब्रेटर (कोलोप्टेरा सेरामबाइसीडे) एक जड़ छेदक कीट है जो खेजड़ी की जड़ों को कमजोर करके छाल में प्रवेश करता है और फिर धीरे-धीरे जड़ों के अंदर से नष्ट करता हुआ मुख्य जड़ों को भी खोखला करना शुरू कर देता है। इस पूरी प्रक्रिया में पेड़ की प्राकृतिक संचार प्रणाली क्षतिग्रस्त हो जाती है जिससे वृक्ष को आवश्यक पोषक तत्वों के मिलाने में बाधा उत्पन्न होने लगती है और अंततः पेड़ सूखने लग जाता है।

  • खेजड़ी पर कवक या फफूंदी रोग :-कवक या फफूंदी भी खेजड़ी की जड़ों को प्रभावित करने वाला रोग है। इसके कारण भी खेजड़ी का वृक्ष सूखने लगता है। खेजड़ी में फंगस की कई प्रजातियाँ उगती हैं जैसे गाइनोडर्मा, फ्यूजेरियम, राइजोक्टोनिया प्रमुख हैं। ये जड़ों से चिपक जाते हैं जिससे पेड़ का संवहनी तंत्र बाधित हो जाता है और वृक्ष सूखने लगता है। खेजड़ी पर अक्सर दीमक का प्रकोप भी देखा गया है। लेकिन रेगिस्तान में तापमान अधिक होने के कारण यह कवक पौधे को कम नुकसान पहुंचाता है।

  • खेजड़ी पर गिरडू रोग :-शुष्क वन अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार खेजड़ी वृक्ष पर लगने वाला रोग गिल्डू/गरडू/गिरडू का मुख्य कारण एक प्रकार के कीड़े हैं जो पत्तियों पर चिपके रहते हैं। गर्मियों में जब नये कोमल पत्ते आते है, फूल व फल आते हैं तो इन कीटों की संख्या में वृद्धि होती है और ये पत्तों, फल व फूल पर अटैक करते हैं जिससे पत्तों पर, शखाओं पर व सांगरी कि जगह गांठें (गिरडू) निकल जाती हैं।

  • उपचार

  • जड़ छेदक कीट का नियंत्र्ण :-वरिष्ठ वैज्ञानिक केके श्रीवास्तव के अनुसार यदि खेजड़ी की छंटाई के बाद एक माह के अंतराल पर मोनक्रोटोफॉस (15 मिली प्रति 10 लीटर पानी) का छिड़काव किया जाए तो अगले वर्ष गिल्डू रोग नहीं लगेगा। लेकिन चालू वर्ष में गांठें बनी रहेंगी। जड़ छेदक कीट नियंत्रण हेतु वर्षकाल में एण्डोसल्फान 35 ई.सी. मी.ग्रा/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। कीट की लटों, भृृंगों को मारने के लिए क्लोरोपाइरीफाॅस 20 ई.सी. (15-20 मीली लीटर प्रति पेड़) व कार्बनण्डजिम 20 ग्राम के साथ ऑक्सीक्लोराइड 40-45 ग्राम प्रति पेड़ के हिसाब से पानी में घोलकर पेड़ के चारों ओर डालें। दीमक नियंत्रण हेतु पेड़ की जड़ों के पास गड्ढा खोदकर क्लोरोपाईरिफाॅस या फाॅरेट अथवा एण्डोसल्फान 4 प्रतिशत चूर्ण को मिट्टी के साथ मिलाकर खाई में भर दें।

    बरसात के मौसम में वयस्क जड़ छेदक भृंगों को प्रकाश जालों का उपयोग करके या खेतों में आग जलाकर प्रकाश की ओर आकर्षित करके नष्ट करें। सूखे और संक्रमित पेड़ों को तुरंत उखाड़ कर जला दें ताकि उनमें मौजूद कीट लार्वा और कवक जलकर नष्ट हो जाएं।

  • कवक फफूंदी का उपचार :-खेजड़ी के पेड़ों को फंगल संक्रमण/रोगों से बचाने के लिए 20 ग्राम बोविस्टीन और 40 ग्राम ब्लाइटोक्स को 20 लीटर पानी में मिलाकर खेजड़ी के पेड़ की जड़ों में डालें। इस प्रक्रिया को हर 15 दिन में 2-3 बार दोहराएँ। इस तरह से फफूंद संक्रमण को काफी हद तक रोका जा सकता है। साथ में ही संक्रमित वृक्षों की जड़ों/तनों पर बने भंफोडो को भी इकट्ठा करके जला दें ताकि फफूंद का संक्रमण अन्य स्वस्थ्य खेजड़ी वृक्षों में न फैले।

  • दीमक पर नियन्त्र्ण का उपाय :-खेजड़ी वृक्ष पर दीमक का प्रकोप होने पर भी वे सूख जाते हैं| दीमक के प्रकोप को रोकने के लिए खेजड़ी के तने पर एक -दो फुट की ऊँचाई तक क्लोरोपाईरिफॅास तथा चूने का घोल बनाकर लेप कर दें। भूमिगत दीमकों को नियंत्रित करने के लिए, पेड़ के तने और जड़ों के पास एक गड्ढा खोदें और उसमें 4% क्लोरपाइरीफोस या फोरेट या एंडोसल्फान पाउडर को मिट्टी में मिलाकर भर दें ताकि दीमक या उनके लार्वा मर जाएं।

  • खेजड़ी के वृक्ष की उचित छंगाई :-खेजड़ी के वृक्षों की छंटाई करते समय कम से कम एक या दो बड़ी शाखाओं को सुरक्षित छोड़ देना चाहिए, अर्थात उन्हें काटना (छंटाई) नहीं करना चाहिए। खेजड़ी की हर वर्ष या दो वर्ष के अन्तराल पर ही पेड़ की छँगाई करनी चाहिए। वृक्ष के निचले दो तिहाई भाग की छँगाई करनी चाहिए और ऊपर के एक तिहाई भाग को सुरक्षित छोड़ देना चाहिए। या एक - दो शाखाओँ को छोड़ना चाहिए ताकी वृक्ष प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन नियमित रूप से बनाता रहे।

  • थार शोभा खेजड़ी का पौधा

    थार शोभा खेजड़ी का पौधा कहाँ मिलेगा

    वर्तमान में थार शोभा खेजड़ी की बहुत अधिक मांग है। किसान थार शोभा के बागान लगा रहे है। बीकानेर में सरकारी स्तर के साथ-साथ निजी सस्थान भी थार शोभा का बड़ी मात्रा में उत्पादन कर रहे है। नर्सरी में थार शोभा खेजड़ी के पौधे वानस्पतिक प्रवर्धन की कलिकायन विधि से तैयार किये जाते है। ये उच्च क़्वालिटी के शीघ्र बढ़ने वाले, अधिक व एक सामान एवम उत्तम गुणों की सांगरी उत्पादन करने वाले होते है। पौध शाला में खेजड़ी के बीजू मूल-वृन्त तैयार किये जाते है। थार शोभा खेजड़ी दो साल बाद ही फल देना शरू कर देती है। पौधे की ऊंचाई 8 - 10 फ़ीट तक होती है। थार शोभा खेजड़ी के पौधे थोक में खरीदने के लिए बीकानेर स्थित नर्सरी से संपर्क किया जा सकता है। SK Nursery House में थार शोभा खेजड़ी का व्यवसायिक उत्पादन होता है तथा उचित दर पर थोक में उपलब्ध है। केन्द्रीय शुष्क अनुसंधान संस्थान बीकानेर (काजरी) की रिसर्च से तैयार हाइब्रिड थार शोभा खेजड़ी के पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कई गुना ज्यादा होती है, और इसमें कांटे भी नहीं होते है। हाइब्रिड थार शोभा खेजड़ी में दो साल बाद ही फल लगने शरू हो जाते है। खेजड़ी की हाइब्रिड थार शोभा किस्म के पौधे पर सांगरी पतली आती है जो बाजार में सबसे मेंहगी बिकती है।

    बागवानी के लिए थार शोभा खेजड़ी के पौधे बीकानेर स्थित S K Nursery House से प्राप्त किये जा सकते है।
    थार शोभा खेजड़ी का पौधा कहाँ मिलेगा
    “If every plant and flower were found in all places, the charm of locality would not exist. Everything varies, and that gives the interest.”
    Kailash Narayan

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